Monday, 10 May 2010

निरूपमा के लिए




















जयती-जयती
के नारो से
धर्म पताकाएं
लहराई ...
भूख-लूट
क्या लाती
उनको
मुद्दो की सड़को पर भला,
जो
धर्म पे लगी
आंच ले आई ....
वाह ! महान संस्था
वाह ! महान बंधनो की
रक्त मे लिपटी कथा ....
हे महान शोध की
प्रयोगशाला
के जनो ,
हे निचुड़ जाने
को तत्पर
देवीरूपी
स्तनो .....
तेरे देवालय के भीतर ,
हुआ है जो भी
आज तलक वो ,
घटा है बाहर
तो पाबंदी ?
खुले आम अब
सींग दिखाकर ,
नाच रहे है
नंगे नंदी ... ?
प्रेम था तेरे
सदा सनातन ,
अनंतगामी ,
धर्म का खंभा ,
प्रेम मे ठहराव
आता है !
अब ठहर गया वो
उसके भीतर
तो काहे का
तुम्हे अचंभा ....
सोच रहा हूं
मै बस इतना
पावन था वो
पल भी कितना ..
मां ने आंचल मे
जब अपने
लेकर के
दम घोटा होगा ...
मालूम हुआ होगा
उसको ये ,
कि परिवारो
के बरगद का
तना
खोखला
सड़ा था कितना ...
उसके गर्भ मे
रखा था जो कुछ
सबके दिल से
बड़ा था कितना